Friday 9 March 2018

सिलाई - मशीन



                                 सिलाई - मशीन 

कुछ तस्वीरे  कभी-कभी धुंदली  सी  यादें  ताज़ा  कर देती हैं।  यह  तस्वीर  भी  कुछ  ऐसे  ही  यादों  का एहसास  है । एक समय था, कभी ये सिलाई-मशीन मुझे किसी अजूबे से कम न लगती थी।  इसके  घूमते  पहिये  और उसपे नाचती  एक डोर  को मैं  आश्चर्य  से देखता  रह जाता  और  न जाने कब  मेरी  अम्मी  की  पैरो  की गुनगुनाहट   तले  एक  पतली सी  डोर  कुछ बिखरे  कपड़ो  को  आपस  में बाँध  देती।  बस जो कुछ  मैं  समझ पाता  वह  थी मेरी अम्मी  की चेहरे पे एक  छिपी  हुई खुशी जो  वह  उन बिखरे  कपड़ो  को सिलते हुए देख कर पाती।  मेरी यादें  अगर  सिलाई-मशीन तक  सिमटी  रह जाती  तो कोई बात न थी,  पर यह तस्वीर  मुझे  उस समय में ले गई  जहाँ  किताबो  से ज्यादा  मैं  जिज्ञासा  भरी आँखो  से  दुनिया  को देख  कर  समझ रहा  था ।  किताबों  के  पन्नो  में  सूरज  का  बसा चीत्र  को  देखने  से जयादा  मुझे  उसके  होने  का   आभास  उसकी  गर्मी  से  अनुभव  कर के  होता  था  जब मेरी अम्मी   हर दोपहर की धुप  में मुझे  अपने आँचल  में छिपाये   पैदल उस  सिलाई- मशीन  तक ले जाती।  सिलाई मशीन  तक का सफर  कभी  उसके  कदम  से कदम मिला कर  फासला  पूरा  करता  तो  कभी  उसकी  गोद  में  बैठ  कर।  उसकी  एक हाथ  में कुछ  बिखरे  कपड़े एक थैली में  सिमटी  रहती  तो दूसरी  हाँथ  से वो मुझे  हमेशा  थामे  रहती। सिलाई-मशीन  तक पहुँच  कर  मानो  उसकी  हर थकान कहीं  गुम  हो जाती। मेरी  अम्मी   की  तरह  कुछ  और भी  महिलाए  आती  थी  सिलाई  सिखने  और कुछ अपने  संग  मेरी  उम्र   के उनके  बच्चे  भी ।  स्कूल  की  चार दीवारी  से निकल  कर  यह खुशी  का  अनुभव  कुछ  अलग  सा था ,  पर शायद मेरी अम्मी  की खुशियों  से बहुत  छोटा   जो उसे  घर  की  चार  दीवारी  से निकलने की आज़ादी से होता था  ।  उस  आज़ादी  से भी ज्यादा  उसे  खुशी  थी  अपने सपनो को सच होता देख कर।  घर  की रसोई  तक सिमटी  प्रतिभा  जो  अब ज़िंदगी  की रोज़ का  हिस्सा बन गई थी,  सिलाई  मशीन  उस के  लिए  किसी  आज़ाद  पंछी  के  पिंजरे के  दरवाज़े से कम न थी।   मैं  स्कूल  न  जाने के कई  बहाने   ढूंढता  रहता  और वो  हर दिन  उस  सिलाई  मशीन  तक  पहुँचने  की प्रयत्न  करती  रहती।  मानो  बिख़रे  कपड़े  एक दुसरे  से सीलकर  एक आकार  न ले कर  मेरी  अम्मी  की  उलझे ज़िंदगी  को  एक दिशा   दिखा  रही हो।  वो ख़ामोशी  से बिख़रे  कपड़ो  को सिलती  और मैं आश्चर्य से सिलाई- मशीन और उसके घूमते पहिये  को  देखता  रहता।   मनो कमीज़  को सिलते  देखना  किसी  जादूगरी  से कम न  हो।  कभी  कौतुहल  से  मैंने  अपनी  अम्मी   से पूछ बैठा  था  कमीज़  क्या  जादू  से बन जाते है ? और वह  मुझे  मुस्कुराते  हुए  ज़वाब  देती - '' हाँ  ... ! इस सिलाई मशीन में  एक जादूगर  रहता  है  जो  धागो से  कपड़े  सील  देता   है''। ( मुझे  जादूगर से बहुत  दर  लगता  था,  वे कुछ भी बदल सकते है, कुछ भी !) यह बात  मैं  कई  सालो   तक  सच मानता  रहा और अपने सपनो में  कई कल्पनाओ से  जीता रहा । अम्मी  ने भी कभी मुझे इससे  उभारा  नहीं , शायद  वह  चाहती   थी  की मैं  सिलाई -मशीन  से  छेड़-छाड   न  करु  और कोई  अप्रिय घटना  न हो। 

   

 

मैं  कुछ  काम से  कई  सालो  बाद एक  सिलाई  घर  पर गया । कुर्सी  पर बैठे  मैं  एक टक  से  वहाँ   हो रही  गतिविधि  को देख रहा  था  की तभी  किसी बच्चे  की आवाज़  आई "अम्मी  मैं आ गया"  उसके  हाथोँ  में एक गेंद  और बल्ला था।  वह शैतानी से दौड़ता हुआ अपनी  अम्मी  को  ढूंढ़ते   कमरे  में  आया।  उसकी  अम्मी   ख़ामोशी  से सिलाई  कर  रही  थी  , और वह  उसके  पास जाकर  रुक  गया  और आश्चर्य  से घूमते सिलाई-  मशीन के पहिये को   देखता  रहा   जैसे  कभी  मैं  देखा  करता  था।  

 इतने  सालो  बाद  किसी  बच्चे की मौजूदगी को  सिलाई घर में देख कर और उसकी आँखों में बसी  वही   मासूमियत  और आश्चर्य को देख  मुझे  अपने  गुज़रे  पल  को फ़िर से  जिवंत  होता  पाया।  ज़िंदगी  की वह  बीती परछाई आज़  फिर उभर  उठी ।  मैंने  उन दोनों  से नज़रे  चुरा  कर  सिलाई -मशीन  की एक तस्वीर  ले लिया  ।   कुछ देर  बाद वह बच्चा  अपना  ध्यान  सिलाई  मशीन  से हटा  कर  अपनी अम्मी  की  आँचल  को पक्कड़ लिया  और उसकी  अम्मी  ने उसे  अपने गोद  में  बैठा  लिया  जैसे  कभी मैं अपनी  अम्मी की आँचल   पकड़ा  करता था  और वह  मुझे  फिर अपनी  गोद  में बैठा लिया  करती  थी।

 यह तस्वीर  अब महज़  एक  तस्वीर  न रह गई  है , बल्कि  मेरी   यादों  की  क़िताब  का एक  कहानी  बन गया  है  जहाँ  आज भी  सिलाई -मशीन  में  कपड़े  सिलने  को  बिख़रे  पड़े  हैं और शायद  वही  पहिया  और डोर  मुझे  उन  यादों  से बांध  रखा  है।  बस इस यादों की स्याही से मैंने उन बीते लम्हो को शब्दो से बुन कर आज़  सँजोया  हैं।